Tuesday, June 28, 2011

कुछ काम तो है ही...!!!



जुबाँ को बिन खोले ,
चाहता हूँ ,..बोलूं 
नयनों को खोलू मैं 
फिर भी न बोलूं



आ जा संग मेरे आ 
बदल घनेरे आ,
रोना है है संग मेरे 
मिटना है संग मेरे ..
दिन के उजाले आ 
संध्या के आँचल में 
सोना है संग मेरे .
पंक्षी ,तू न चहक 
देखकर मुझे ,न हँस
भवरे, अब तो ठहर 
छोड़ कलियों का शहर ,


समंदर की लहरें , थम
ग़म थोड़े ही है कम ...

फिर भी तू लहरों सा..
उठना न करना बंद 
जा समीर अब तू भी जा 
थोडा सा रंग ले आ ...
फूलों और कलियों से ,
परियों की गलियों से
धुप और छांव में ,
शहरों में भी ,गाँव में ..
रंगना है हर कण को,
जीवन के हर क्षण को ...





परदे के पीछे सायद अँधेरा है ,
जब तक 'तू' है ,
तब तक सबेरा है ..
चलो फिर भी ,
तेरा नाम तो है ही ..
जीने के लिए ,
कुछ काम तो है ही...

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written when coming back  by train to Patna after taking admission in WBUT ...:p(July 2006)

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